वच क्या है ?

लैटिन नाम: एकोरस कैलेमस (Acorus Calamus linn.)

Family : Araceae.

अंग्रेजी: Sweet Flag.

संस्कृत : वचा।

गुजराती : घोड़ावच, खोरासानीवज मराठी : बेखण्ड । हिन्दी: वच, घोड़वच भी कहते हैं।

वानस्पति परिचय

यह एशिया के मध्य भाग, पूर्वी यूरोप, भारत में लगभग सर्वत्र दलदली व जलीय भूमि में उत्पन्न होती है।

वच का पौधा गुल्म जातीय ३ से ५ फुट तक ऊँचा होता है। इसके पत्ते लम्बे, पतले ईख के पत्ते के समान होते हैं। इसकी जड़ की शाखायें चारों तरफ फैली होती है। ये रोम युक्त तथा सुगन्धित होती हैं। वैसे इसके सभी अंगों से सुगन्ध आती है। सूखने पर यह भूरे रंग का हो जाता है।

रासायनिक संगठन

पीले रंग का उड़नशील सुगन्धित तैल, एकोरिन, एकोरेटिन, स्टार्च, गोंद, टैनिन एवं कैल्शियम आक्जलेट आदि ।

गुण : लघु, तीक्ष्ण, सर ।         वीर्य : उष्ण ।

प्रभाव : मेध्य ।                     रस : तिक्त, कटु ।   विपाक : कटु ।

प्रयोग

इसका उपयोग उन्माद, अपस्मार, अपतन्त्रक, श्वासकास, कण्ठरोग, जीर्ण, अतिसार, संग्रहणी, आध्मान, शूल, मन्द ज्वर, विषम ज्वर,कर्णमूल

शोथ आदि रोगों में करते हैं। यह बुद्धिवर्द्धक है, इसके लिये वच चूर्ण को शहद या दूध के साथ अधिक दिन तक सेवन कराने से लाभ होता है। बेहोशी को दूर करने के लिए इसके महीन चूर्ण को नाक में डालते हैं तो छींक आकर होश आ जाता है। इसे अधिक मात्रा में देने से वमन होता है। विषम ज्वर में, जी-र्ण ज्वर में यानि जहाँ कुनैन व सिनकोना काम नहीं करता वहाँ वच चूर्ण को जल में घोलकर देने से अवश्य ही लाभ होता है। वच चूर्ण व चिरायता चूर्ण दोनों समान मात्रा में लेकर एक से दो माशे की मात्रा में दिन में तीन बार शहद के साथ चटाने से और वच के चूर्ण और हरड़ के चूर्ण दोनों को मिलाकर आग में डालकर शरीर पर धुआँ देने से रोगी ठीक हो जाता है।

प्रयोज्य अंग    मूल ।

मात्रा

वमन कराने हेतु १ से २ ग्राम, अन्य गुणों के लिये २५० से ५०० मि.

विशिष्ट योग

सारस्वत चूर्ण, मेध्य रसायन ।

नोट

इसे पित्त प्रकृति वाले को नहीं खाना चाहिये। इसके खाने से किसी प्रकार का उपद्रव होने पर सौंफ व नीबू का शर्बत देना चाहिए।और बिना आयुर्वेदिक डॉक्टर की सलाह से इसे ग्रहण न करें |

वचा

  (क) यः खादेत् क्षीरभक्ताशी माक्षिकेण वचारजः । अपस्मारं महाघोरं सुचिरोत्थं जयेद्ध्रुवम् ॥ चक्र० ॥

 (ख) दिवा रात्रिं वचाग्रन्थिं मुखे संधारयेत् भिषक् । तेन सौख्यं भवेत्तस्य मुखरोगाद्विमुच्यते ॥ हा० ॥